एक ज़माना हमारा था . स्कूल की छुट्टी का मतलब होता था पढ़ाई से छुट्टी . गर्मियों की छुट्टी में जब दो महीने स्कूल बंद रहते थे उस समय शायद ही कोई बच्चा अपने घर में रहता था सब नानी के घर जरूर जाते थे . मैं तो जाता ही था . वह दिन आज याद आ रहे है .
मेरी ननिहाल शहर से लगभग ४० किमी दूर थी २० किमी तक सड़क थी उसके बाद लहड़ू (बैलगाड़ी ) से जाना पड़ता था . लहड़ू से लगभग चार पांच घंटे लगते थे अगर लगातार चले . इसलिए हम शाम को शहर से कसबे में आ जाते थे वही से सुबह जल्दी निकालते थे खराबा खराबा . आखिर जमींदार परिवार के नवासे थे तो लाव लश्कर भी साथ होता था . मुझे याद है एक लहड़ू आता था और एक लहडिया . लहड़ू को आप कार मान ले और लहडिया को जीप . लहडिया में सामान होता था और नौकर . और हम लोगो को सज़ा हुआ लहड़ू जिस में शानदार और जानदार बैल जुते होते थे .लहड़ू ऊपर से चादर से ढका होता था अन्दर गद्दे विछे होते थे . एक कोचवान होता था जो बैलो को हाकता था .
लहडिया हमसे पहले चल देती थी और बीच रास्ते में एक बाग़ में पड़ाव डालती थी .चाकर वहा पर साफ़ सफाई करके फर्शी विछा कर पानी भर कर हमारा इंतज़ार करते थे हम लोग लहड़ू से वहा पहुचते थे तब तक सब रेड्डी मिलता था . हम वहा दोपहरा करते थे . यानी दोपहर में आराम . किस्से कहानिया होती थी . खेल कूद भी . उस समय पर्दा प्रथा जोरो पर थी लेकिन मेरी माँ लहड़ू पर से ऊपर डाली चादर हटवा देती थी लेकिन गाँव नज़दीक आने पर फिर से चादर डाल दी जाती थी .
शाम तक हम अपनी नानिहाल पहुचते थे वहा भी स्वागत का इंतजाम होता था . नानाजी के राज में बच्चे तो शेर हो ही जाते है . वही हाल हमारा था . ५ पैसे की २५ लेमनचूस खाते थे . जो फरमाइश करते पूरी होती उस समय गाँव में . खेल कूद ,गुलेल ,गेंद तड़ी , सपोलिया , खो खो ,कबड्डी , बालीबाल और तो और उस जमाने में गाँव में बड़े जमींदार लोग टेनिस खेलते थे हैट लगाकर . मनोरंजन के लिए किस्से कहानिया . हमारे यहाँ एक नौकर था उसे किस्से बहुत आते थे जब मन होता था उसे बुला लेते थे . यहाँ तक रात में भी . वह किस्से सुनाता रहता था और हम लोग सो जाते थे . वह भी आधी रात तक बैठा बोलता रहता था उस डर रहता था अगर यह लोग जग रहे हो और मैं चुप हो गया तो मार की संभावना बड़ जायेगी .
उसके किस्से और गाँव की मस्तिया फिर कभी