बेचारा किसान (भाग -१ )
मारुती ८०० -१९९४ में जितने रूपए की थी आज २००८ में भी उसकी कीमत लगभग उतनी ही है । तबसे लोहा ,प्लास्टिक ,अल्मोनियम ,टायर मतलब हर उस वस्तु के दाम बड़े और कई गुना बड़े जो कार बनाने के काम आती है । न सरकार ने तब और ना अब उसका मूल्य घोषित किया ना उसकी लागत देखी।
लेकिन सरकार किसानो की खून -पसीने की मेहनत और उसकी लागत और उसके जोखिम की अनदेखी कर उसकी उपज का मूल्य घोषित कर देती है, क्यों ? क्योंकि बेचारे किसान की बात या कहे उनकी आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं । जो आवाज़ उठाते है वह कुछ दिन बाद सत्ता के गलिआरों में भटक जाते है या कहे सत्ता के हरम में शामिल हो जाते है या उने खारिज करके मजबूर कर दिया जाता की वह घर बैठे । दुर्भाग्य है किसानो का संसद में जाने वाले हर सुबिधा तो याद रखते है लेकिन जिन किसानो के वोट लेकर वहा गए उनको भूल जाते है ।
किसानो की कोई एसोचेम या फिक्की जैसी संस्था नहीं जो देश के लीडर या ब्यूरोक्रेट को फाइव स्टार होटल में सेमीनार करके अपनी परेशानी बताय और चुनाब में मोटा चंदा देकर अपना फायदा पाए ।
आज गन्ना की बात है तो सुप्रीम कोर्ट तक को दखल देना पड़ रहा है ,और सरकार व गन्ना मिल मालिक उन निर्देशों को हवा में उदा दे रहे है क्योंकि भाई चंदा चाहिए उसी रूपए से तो वोट खरीदेंगे किसान का
मेरी समझ से किसानो की दुर्दशा का जिम्मेदार किसान खुद है क्योंकि जो अपने अधिकारो के प्रति सजग नहीं उसका कुछ नहीं हो सकता ..........
आपने सही लिखा है छोटी से छोटी फैक्ट्री अपने उत्पाद का मूल्य ख़ुद निर्धारित करती है लेकिन किसान के उत्पाद का मूल्य निर्धारण सरकार या मण्डी के दलाल करतें है जब तक किसान का अपना उत्पाद बेचने का अपना आउट लेट नही होगा उसका शोषण होता ही रहेगा और आउट लेट होना सम्भव नही है |
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