गुरुवार, मई 12, 2022

विवादों पर लगाम

शनिवार, मई 07, 2022

शुक्रवार, मई 06, 2022

धर्म की रक्षा

बुधवार, जून 02, 2021

क्या योगी बड़े होकर मोदी बनेंगे ?

क्या योगी बड़े होकर मोदी बनेंगे ?

विचार की गति प्रकाश की गति से तीव्र होती है। और जेट युग मे कुछ ज्यादा ही। 5 साल में एक बार चुनाव होते है और चुनाव जीतते या हारते ही अगले चुनाव का मिशन शुरू हो जाता है। चंद लोग तुरन्त अपने हिसाब से अपने पसंद के नेता की पदोन्नति घोषित कर देते है। 

अभी एक मुहिम चलाई जा रही है मोदी के उत्तराधिकारी की खोज की। जबकि मोदी के प्रधानमंत्री पद का चरम अभी बाकी है। 2019 में 370 हटने के बाद चंद लोगो ने घोषणा कर दी थी 2024 में मोदी राष्ट्रपति और अमित शाह प्रधानमंत्री। उसके बाद परिस्थितियों ने करवट ली अब वही चंद लोग उत्तराधिकारी के रूप में योगी की घोषणा कर रहे है। 

सवाल यह है कि योगी क्या मोदी बन सकते है। मोदी और योगी की एक समानता है कि दोनों पैराशूट मुख्यमंत्री बनाये गए। जब मुख्यमंत्री बने तो उनके नाम पर चुनाव नही हुआ। लेकिन मोदी ने अपने को सिद्ध किया आगे आने वाले विधानसभा चुनावों में अपने बल पर जीत कर। 13 साल के मुख्यमंत्री पद के दौरान ही वह प्रधानमंत्री पद की राह बना सके। 

योगी भी 2017 चुनाव के बाद मुख्यमंत्री बनाये गए। मुख्यमंत्री बनने के तुरन्त बाद हुए लोकसभा उप चुनाव में वह अपनी और उपमुख्यमंत्री की छोड़ी सीट को भी नही जिता सके। उसके बाद 2019 लोकसभा चुनाव में भी 2014 उत्तर प्रदेश में रिपीट नही हो सकी। 

योगी का सवा चार साल का मुख्यमंत्री पद के कार्यकाल का अगर अवलोकन किया जाए तो योगी की उतनी पकड़ नही साबित हुई जितनी योगी जैसे व्यक्तित्व की होनी चाहिये थी। कभी कभी लगता है कोई रिमोट काम करता है। कोरोना की दूसरी लहर के विकट रूप में आने के बाद योगी की सक्रियता भी उन्हें स्थिर नही कर पा रही है। 

योगी को मोदी बनने में अभी बहुत दूरी पूरी करनी है। योगी व्यक्तिगत रूप से मजबूत है लेकिन पार्टी में उनकी पकड़ संदिग्ध है। मुझे नही लगता 325 विधायको में से 20 % विधायक भी उनके लिये ढाल लेकर खड़े हो सके। 

गुजरात के मोदी काल में मोदी ने अपनी विशिष्ट कार्यशैली से कार्यकर्ताओ , संग़ठन और सत्ता में अपनी विशेष पकड़ बनाई। उनके सिपहसालारो ने उनके मिशन को आगे बढ़ाया। पूरे गुजरात को बाइब्रेनट और विकसित राज्य का मुलम्मा चढ़ाया। और इसके लिये उन्हें 13 साल लगे। विधानसभा चुनाव में लगातार जीत दर्ज की और अपने को मजबूत किया। 

2022 योगी के लिये आरपार वाला साल है। लेकिन जिस प्रकार से उनका रथ शल्य हांक रहे है उससे नही लगता कि उनके लिये राह आसान है । अगर चुनाव से पहले मंत्रिमंडल में कोई परिवर्तन हुआ तो इसका खामियाजा पार्टी को होगा और ठीकरा योगी के सिर फूटेगा। जैसी चर्चा है कि ब्राह्मण उपमुख्यमंत्री को हटा कर उनकी जगह एक भूमिहार नौकरशाह को लाया जा रहा है यह एक कील साबित होगा। 

आगे क्या होगा इसकी कहानी लिखी जा रही हिस्ट्री रिपीट हो रही है । राष्ट्रीय पार्टीयो को एक शौक होता है मुख्यमंत्री को अस्थिर रखना। कल्याण सिंह सरकार जो हर तरह से सक्षम थी उसे केंद्र ने ही अस्थिर कर दिया और पार्टी को लंबे वनवास पर भेज दिया। यही कारण है 2014 के बाद भी गुजरात के अलावा कहीं भी पार्टी अपने बूते पर वापिस नही आई। गुजरात मे भी वापसी पहले से कम सीट लेकर हुई। 

देखते है आगे क्या होता है । गाँव की एक कहावत है निकल गए तो गाड़ीवान नही निकले तो ...........

बाकी जो है सो है।

रविवार, मई 30, 2021

पत्रकारिता दिवस

उदन्त मार्तण्ड से उदंड मीडिया तक का सफर 

30 मई 1826को पंडित जुगलकिशोर शुक्ला द्वारा कलकत्ता से पहला हिंदी अखबार उदन्त मार्तण्ड प्रकाशित किया। भारतीय पत्रकारिता की आधारशिला उस समय रखी गई जब भारत गुलाम था। समय के साथ साथ भारतीय पत्रकारिता ने आजादी की लड़ाई में एक हथियार बन एक बहुत बड़ी भूमिका निभाई। 

अकबर इलाहाबादी ने भी कहा है - 

खींचो  न  कमानों  को  न  तलवार  निकालो
जब  तोप  मुकाबिल  हो  तो  अखबार  निकालो 

आजादी के सालों बाद तक अखबार अंकुश का काम करता रहा। स्वनामधन्य पत्रकारों से सरकारें सलाह लेती रही सहम ती रही। आपातकाल में भी अखबार ने तोप का मुकाबला किया और तोप को हराने में भी अपनी भूमिका निभाई। 

एक दौर था जब बडे से बड़ा नेता पत्रकारिता के सामने नतमस्तक हुआ करता था। नेताओं को सत्ताधीशो को संसद का सामना आसान था लेकिन पत्रकारों के सवालों का जबाब बहुत मुश्किल होता था। बड़े से बड़ा नेता प्रेस वार्ता का सामना मुश्किल से करता था। क्योकि उस समय दोनों तरफ से प्रश्नावली का आदान प्रदान नही होता था।  प्रिंट मीडिया की एक धमक थी सच्चाई की चमक थी। एक अखबार ने सशक्त सबसे ज्यादा बहुमत से बनी सरकार को अस्थिर कर दिया अपने अखबार में रोज 10 सवाल पूछ कर। 

पत्रकारिता एक मिशन था समय के साथ साथ व्यापारियों ने इस पर कब्जा कर लिया। सम्पादकों से ज्यादा पावर फुल मैनेजिंग डायरेक्टर हो गए । पत्रकार संवाददताओं से समाचार संकलनकर्ता हो गए। आज अखबार में विज्ञापन को एक नया नाम दिया गया और जो लिख कर दो वह छप जाता है। अखबार समाज का आईना था समाज मे हो रहे पतन का कारण अखबार न भी सही लेकिन पतन न रोकने का अपराधी तो अखबार ही है। 

अखबार से निकल एक और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सामने आया। TRP की होड़ और 24 घण्टे की भूख ने उस मीडिया को उदंड कर दिया। आज मीडिया मनोरम कहानियां, सत्य कथाओं  सरीखा हो गया । सच के नाम पर कारोबार करने वाले आर्टिफिशियल सच दिखाने लगे। 

उदन्त मार्तण्ड से लेकर उद्दंड मीडिया तक का सफर समाज के सफर का भी आईना है। क्योकि जो बिकता है वह ही बेचा जाता है और जो दिखाया जाता है वह ही खरीदवाया जाता है। 

#पत्रकारिता_दिवस

शुक्रवार, मई 28, 2021

वीर सावरकर

वीर सावरकर को अगर आप पढ़े तो आपको जरूर पता चलेगा सावरकर का विरोध उनकी हिंदुत्व शब्द की मीमांसा को लेकर हुआ । उनके द्वारा हिन्दुओ के सात सुधारो को उस समय के कट्टरपंथी हिन्दुओ को सहन नही हुआ होगा। गाय पर उनके विचार आज के समय उनको हिंदुत्व से खारिज करने के लिये काफी है। 
1906 में गाँधी से उनकी पहली मुलाकात में गाँधी को जब पता चला कि ब्राह्मण होकर सावरकर झींगा मछली बना और खा रहे है तो गाँधी ने एक दूरी उनसे बना ली। और सावरकर का कहना आप मछली को बुरा मान रहे हो हमे तो अंग्रेजो को खाना है। 

सावरकर का विरोध मुझे लगता है उनके सुधारवादी हिंदुत्व के कारण शुरू हुआ होगा । उस समय कांग्रेस अपने को हिन्दू महासभा से बड़ा हिन्दू हितैषी दल मानता था। और सावरकर के रहते यह सम्भव न हो पा रहा था। इस लिए सावरकर की छवि को खराब करने के लिये आरोप लगाया माफी का उसके बाद गांधी हत्या का। जबकि सावरकर को दोहरे कालापानी की सजा मिली उन्हें कोल्हू में जोता गया अत्याचार किया गया अगर उन्हें माफी मांगनी होती तो जब वह पानी के जहाज से फरार हुए और फ्रांस के तट पर पकड़े गए तभी मांग सकते थे। 

आज तक वीर सावरकर के त्याग बलिदान को वह स्थान नही मिला जो मिलना चाहिए था। क्योकि सावरकर किसी भी सत्ता दल की परिभाषा में उनके हिसाब से खरे नही उतरते।

आज सावरकर पर जो रेडीमेड बधाईयाँ प्रेषित कर रहे है अगर वह सावरकर को पढ़ लेंगे तो असहज हो जाएंगे।

सावरकर को पढिये समझिये ।

गुरुवार, मई 27, 2021

योग और आयुर्वेद

बाबा रामदेव ने योग के लिये अतुलनीय काम किया है। योग को आसान बनाने के लिये उनका काम सराहनीय है। जन जन तक उन्होंने योग पहुंचाया। उनसे पहले जितने योगाचार्य हुए वह सब योग को सिखाने  से पहले पद्मासन पर बैठने को कहते थे । लोग पद्मासन लगा नही पाते थे और योग सीख नही पाते थे। बाबा ने उसे आसान किया। और लोगों की रुचि योग की तरफ बढ़ी। 

लेकिन बाबा जी योगाचार्य से कब आयुर्वेदाचार्य हो गए यह कमाल है। योग और आयुर्वेद अलग अलग विधाएं है। योग के लिए शिक्षित होना अनिवार्य नही योग की साधना आवश्यक है। लेकिन आयुर्वेद के लिये शिक्षित होना अनिवार्य है। आयुर्वेद एक विज्ञान है। और कोई भी विज्ञान सिर्फ अध्धयन और प्रयोग से ही आता है। आयुर्वेद कोई ऐसी चीज नही जो अनलोम विलोम की तरह करने से ही होगी। 

बाबा जी से मेरा कोई वैमनस्य नही लेकिन जैसे बाबा जी ने योग में पारंगत होने के बाद कर्मवीर को हटा दिया अब लगता है आयुर्वेद सीख कर आचार्य बाल किशन को कही हरी झंडी न दिखा दे। आचार्य बाल किशन आयुर्वेदाचार्य है और उन्हें ही आयुर्वेद पर बोलना चाहिये। 

आयुर्वेद ईश्वरीय विधा है। जिसे भगवान धन्वंतरि ने प्रकृति के लिये दिया। नालंदा विश्वविद्यालय के जलाने के बाद आयुर्वेद को बहुत नुकसान हुआ यह विज्ञान गुप्त हो गया। और अनुसंधान की कमी के कारण शल्य चिकित्सा में यह पिछड़ गया। लेकिन आयुर्वेद कभी लुप्त नही हुआ। देश में गुरुकुल कांगड़ी जैसे कई विश्वविद्यालय आयुर्वेद को पुराना वैभव देने की कोशिश कर रहें है। 

ऐसा नही है कि बाबा रामदेव से पहले आयुर्वेद दोयम दर्जे में था। महर्षि महेश योगी वैद्य राज बृहस्पति देव त्रिगुणा   जैसे व्यक्तियों ने आयुर्वेद की ख्याति को विश्व में पुनर्स्थापित किया। बाबा को यह नही मालूम होगा कि विश्व आयुर्वेद कांग्रेस विदेशों में कांफ्रेंस कर आधुनिक चिकित्सा के साथ अनुसंधान कर रहे है। जिसकी रिपोर्ट आप गूगल से निकाल सकते है। आज भी भारत में ऐसे ऐसे वैद्य है जिनका नाड़ी ज्ञान आज भी आधुनिक विज्ञान को संशय में डाल देता है। 

लेकिन जब से बाबा दवाई के व्यापार में उतरे है तब से बाबा आक्रमक हो गए है। अभी आजतक में लाइव आ रहे बाबा कभी कभी राधे माँ कभी कभी बाबा ओम की तरह नाटकीय अभिनय करने लगते है। बाबा अपने बतोले पन से नुकसान पहुँचा रहे है सँस्कृति को । 

#बाबारामदेव