गुरुवार, सितंबर 30, 2010

खुशबु आ नहीं सकती कागज़ के फूलो से सच्चाई चुप नहीं सकती बनावटी उसूलो से

खुशबु आ नहीं सकती कागज़ के फूलो से 
सच्चाई चुप नहीं सकती बनावटी उसूलो से 

11 टिप्‍पणियां:

  1. सुरेन्द्र मोहन30 सितंबर 2010 को 5:26 pm बजे

    एकदम सही लिखा

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  2. जब अपनी बात कहने को, लगे बस शीर्षक काफ़ी
    बचें तब क्यों न हम धीरू,पोस्ट लिखने के तूलों से

    बहुत अच्छा !

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  3. मेरे राम को भी अपना स्थान मिल गया।

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  4. हम तो समझ रहे थे कि सच्चाई छुप नहीं सकती :)

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  5. आप बिलकुल सही कह रहे हैं ...पर एक नजरिया ऐसा भी है

    सच्चाई छुप सकती है यदि आपस में मेल हो
    खुशबू आ सकती है यदि कागज़ में तेल हो ....

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आप बताये क्या मैने ठीक लिखा