पेट की आग बुझाने को
रोज़ कुआं खोदता है
मजदूर ही है वह जो
रोज़ महल बना कर
झोपड़ो में सोता है
मेहनत कर अन्न उगाता
पर अन्न के लिए तरसता है
मजदूर ही है वह जो
रोज़ सड़क बना कर
पगडंडी पर चलता है
अपने खून पसीने से
मशीनों को गति देता है
मजदूर ही है वह जो
रोज़ कपड़ा बुन कर
बिन कफ़न के मरता है
चलो साल में एक दिन
याद करके अपने को चमकाते है
मजदूरों को दधीच बना कर
अपना इन्द्रलोक बचाते है
मई दिवस पर इन्हें प्रणाम.
जवाब देंहटाएंवाह सुन्दर;मार्मिक;सत्य दर्शाती कविता, कविता के लिये उपलब्ध इस कच्चे माल पर लिखी गई दिल छूने वाली कविता..."
जवाब देंहटाएंमार्मिक रचना ।
जवाब देंहटाएंपेट की आग बुझाने को
जवाब देंहटाएंरोज़ कुआं खोदता है
मजदूर ही है वह जो
रोज़ महल बना कर
झोपड़ो में सोता है
.... Bahut maarmik, samvedanta se bhari rachna ke liye dhanyavaad.
चलो साल में एक दिन
याद करके अपने को चमकाते है
मजदूरों को दधीच बना कर
अपना इन्द्रलोक बचाते है
... Aameen!
"अपना इन्द्रलोक बचाते है" क्या बात कही है. यही तो सच्चाई है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता मजदुर दिवस पर, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंमार्मिक पर सत्य वचन
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील।
जवाब देंहटाएंइसे धीरूसिंह ही लिख सकते हैं, अजित नहीं।
मजदूर को सलाम!!!
कटु यथार्थ का सम्वेदनशील चित्रण।
जवाब देंहटाएंbahut khub
जवाब देंहटाएंbadhai is ke liye aap ko
मई दिवस पर इन्हें प्रणाम.
जवाब देंहटाएंमजदूरों को दधीच बना कर
जवाब देंहटाएंअपना इन्द्रलोक बचाते है
बहुत सशक्त पंक्तियां।
मार्मिक ... पर सत्य है ... एक दिन उनके नाम कर के इति श्री समझ लेते हैं सब ....
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