शनिवार, मई 01, 2010

मजदूर ही है वह जो रोज़ कपड़ा बुन कर बिन कफ़न के मरता है

पेट की आग बुझाने को 
रोज़ कुआं खोदता है 
मजदूर ही है वह जो 
रोज़ महल बना कर 
झोपड़ो में सोता है 

मेहनत कर अन्न उगाता 
पर अन्न के लिए तरसता है 
मजदूर ही है वह जो
रोज़ सड़क  बना कर 
पगडंडी पर चलता है 

अपने खून पसीने से 
मशीनों को गति देता है 
मजदूर ही है वह जो 
रोज़ कपड़ा बुन कर 
बिन कफ़न के मरता है 

चलो साल में एक दिन 
याद करके अपने को चमकाते है 
मजदूरों  को दधीच बना कर 
अपना इन्द्रलोक बचाते है 




13 टिप्‍पणियां:

  1. वाह सुन्दर;मार्मिक;सत्य दर्शाती कविता, कविता के लिये उपलब्ध इस कच्चे माल पर लिखी गई दिल छूने वाली कविता..."

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  2. पेट की आग बुझाने को
    रोज़ कुआं खोदता है
    मजदूर ही है वह जो
    रोज़ महल बना कर
    झोपड़ो में सोता है
    .... Bahut maarmik, samvedanta se bhari rachna ke liye dhanyavaad.
    चलो साल में एक दिन
    याद करके अपने को चमकाते है
    मजदूरों को दधीच बना कर
    अपना इन्द्रलोक बचाते है
    ... Aameen!

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  3. "अपना इन्द्रलोक बचाते है" क्या बात कही है. यही तो सच्चाई है.

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  4. बहुत सुंदर कविता मजदुर दिवस पर, धन्यवाद

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  5. बहुत संवेदनशील।
    इसे धीरूसिंह ही लिख सकते हैं, अजित नहीं।
    मजदूर को सलाम!!!

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  6. कटु यथार्थ का सम्वेदनशील चित्रण।

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  7. मजदूरों को दधीच बना कर
    अपना इन्द्रलोक बचाते है


    बहुत सशक्त पंक्तियां।

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  8. मार्मिक ... पर सत्य है ... एक दिन उनके नाम कर के इति श्री समझ लेते हैं सब ....

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आप बताये क्या मैने ठीक लिखा