वन्देमातरम , मराठी , हिन्दू मुस्लिम जैसे विवाद या कहे रोज़ एक नया विवाद और उस पर चर्चा में जो वक्त जाया करा जा रहा है या कहे कराया जा रहा है . कभी सोचा क्यों ? यह एक षड्यंत्र सा है जो हम आदमी को वह नहीं सोचने देता जिस पर चर्चा बहुत जरुरी है .
महंगाई सुरसा सा मुहं फाड़े खड़ी है . कोई उस और ध्यान ना दे इसलिए रोज़ एक नया विवाद . बेकार का विवाद - चीन के सैनिको ने घुसपैठ की , दलाई लामा की अरुणाचल यात्रा , देश की सीमा पर संकट , अल कायदा का अगला निशाना, कोडा के कारनामे और ना जाने क्या क्या . और अब १० -१५ दिनों के लिए राज ठाकरे .
सिर्फ एक मकसद है इन विवादों के पीछे की जनता या कहे आम आदमी महंगाई और मूलभूत समस्याओ को भूल जाए उसका ध्यान ही ना पड़ने दिया जाए इन ज्वलंत विषयों पर . सत्ता पक्ष अपनी चालो पर कामयाब हो रहा है और हमारा नाकारा विपक्ष जो विपक्ष कहलाने के लायक भी नहीं वह अपने रास रंग में मस्त है क्योकि महंगाई की तपिश उनके घर में महसूस नहीं होती .
इसी देश में जब विपक्ष की नेता इंदिरा गाँधी थी तो सिर्फ सोने और प्याज की महंगाई का रोना रो कर सत्ता में आ गई . उनके बाद उन्ही की पार्टी ने बीजेपी की राज्य सरकारे प्याज की महंगाई में धो डाली . और आज का विपक्ष महंगाई की समस्या को मुद्दा ही नहीं बना पा रहा है क्योकि विपक्ष के नेता भी तो सत्ता सुख तो भोग ही रहे है .
डर तो इस बात का लग रहा है अगर आम आदमी महंगाई की तपिश को ज्यादा महसूस नहीं कर पाया और उसके पेट की आग उसके हाथो में पहुच गई तो क्या क्या जलेगा कल्पना भी भयावह है . और यह आग फैलेगी जरुर क्योकि प्रधानमंत्री और कृषि मंत्री कहते है महंगाई अभी कम नहीं होगी .
अदभुत....अभी सही चीज पकड़ के लाये हैं आप...जोर से चिखने की इच्छा हो रही है .....कोई सुन रहा है ????????? सुनेंगे कैसे चारों तरफ शोर जो खड़ा कर दिया गया है...क्या पक्ष और विपक्ष के बिना डायरेक्ट जनता के हाथ मे शासन की कोई व्यवस्था के विकल्प तलाशने का समय आ गया है ?? या अभी पक्ष और विपक्ष को आजमाते रहना है?? जो आज पक्ष है वह कल विपक्ष है, जो कल विपक्ष था वो परसों पक्ष रहेगा....सारे शोरगुल के अपने अपने बेहुदे तर्क हैं...देश की आवाज कहां गुम है..???
जवाब देंहटाएंधीरू सिंह जी मुझे तो आपकी ही आवाज में देश की सही आवाज सुनाई दे रही है....पता नहीं आप किस बल के सहारे ऐसी बातें कर रहे हैं....आश्चर्य, घोर आश्चर्य ......बहुमत के बजाय देश आप जैसे लोगों के जनमत के आधार पर चलनी चाहिये...अब तो हद हो गई है....किनके कनेक्शन को कहां से खोला जाये और कहां से शुरु किया जाये, बेमानी हो चला है...लेकिन मार्के की बात कहीं होती है तो बरबस स्वर में स्वर मिलाने की इच्छा होती है....मैं जूते नहीं चला सकता, इसलिये नहीं कि कमजोर हूं, बल्कि इसलिये कि दूसरा जूता मेरे पास है नहीं...और नही एक जोड़ी जूता खरीदने की औकात...लगता है जिस समय बुश और चिदंबरम पर जूते फेंके गये थे उस समय दुनिया आर्थिक मंदी में नहीं फंसा था...अब यदि साग सब्जी और चावल दाल मंहगे हो रहे है तो सतर्क तो होना ही चाहिये....राणा प्रताप सिंह की तरह लोग घास तो खाएंगे नहीं....हां बास्तिल की रोटियों की लूटपाट जरूर होगा....वैसे सरकारी खजानों में गोलियो की कमी नहीं है....यकीनन इनको झोकने में राज्य की ओर से कोई कमी नहीं की जाएगी....और गोलियों की थर्राहट के आगे पेट का आग झुलस जाता है....
आपकी और आलोक नंदन जी दोनों की बातों से सहमत हूँ.
जवाब देंहटाएंसोचने लायक बात है
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंमूल मुद्दों से ध्यान भटकाने का खेल तो चल रहा है .. यहाँ ब्लॉग पर भी ।
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