तापने वालो के हाथ उन कंबलो को टटोलने में लगे थे . एक ने कहा .... साले कम्बल बाट रहे है या चद्दर क्या कीमत होगी ६० रुपेय क्या भला होगा एक पौआ भी तो नही मिलेगा इसे बेच कर . और ठण्ड में एक पौआ से भी क्या होगा इससे अच्छा तो कल वाला था कम से कम कम्बल तो ढंग का था पौआ के साथ साथ अंडे का भी जुगाड़ हो गया था . चलो दान की बछिया के क्या दांत गिने इसी से काम चलाओ . फिर कोई दाता की सखी आयेगी हमें ठंड से बचाने . साले कम्बल दान कर रहे है अगर पौआ बाटे तो इनकी दो चार पुश्ते तक सबाब मिलेगा .
ठंड वाकई बहुत है।
जवाब देंहटाएंयह भी एक रूप है
जवाब देंहटाएंमानवीय स्वभाव का कोई ठिकाना नहीं..
जवाब देंहटाएंऐसा भी होता है !!
जवाब देंहटाएंबेहद सटीक विश्लेषण है ... आज कल यह काफी देखा जा रहा है !
जवाब देंहटाएंपौआ बाटने से ठंड का अनुभव नहीं होगा।
जवाब देंहटाएंपता नहीं कितने कंबल बांटने वाले इस पोस्ट को पढ़ेंगे :-(
जवाब देंहटाएंसबकी मानसिकता
जवाब देंहटाएंअपनी-अपनी!
ओह, कम्बल और पव्वा की लड़ाई में तो कम्बल शायद ही जीते! :)
जवाब देंहटाएंआप के कहने के अनुसार मैंने पहली पोस्ट लिखी है. कृपया देखिये..
जवाब देंहटाएंपौआ आधे का भी आधा है, लेकिन पूरा है...
पव्वे की लड़ाई में तो कोई नहीं जीत सकता। बेचारे कम्बल की क्या औकात है? जब एक पव्वे से वोट पड़ जाते हैं तो?
जवाब देंहटाएंसमाज का कड़ुवा सच ... वीभत्स चेहरा ...
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