बचपन की तरफ जब मुड़कर देखता हूँ तो जीवन के नवरस याद आ जाते है . बम्बई ........ जी हां उस समय बम्बई ही थी वह .सपरिवार घूम रहा था तो एक जगह मचल गया कैमरे के लिए सड़क पर लोट गया बच्चा जिद पर था पापा के आगे धर्मसंकट था सामने ही दूकान थी . Agfa 4 नाम का एक कैमरा खरीदा तकरीवन १५० रु. कीमत थी . उसी कैमरे से बम्बई ,पूना ,कोल्हापुर ,गोवा तक की तस्वीर उतारी . क्लास ५ में पढ़ता था मैं उस समय .
समय के साथ साथ उमर बढती गई और मांगे भी . कक्षा ६ स्कूल साइकिल से जाना चाहता था और लड़को की तरह .लेकिन घरवाले राज़ी नहीं किसी भी कीमत पर . जीप से भेजा जाता था ड्राइवर जाता था छोडने . बहुत बुरा लगता था . एक तरीके से बहिष्कृत था मैं साथ वाले लड़को के लिए सब अजीब से देखते थे . फिर जिद की. एक कमेटी बनी घर पर साइकिल के लिए .तमाम मुश्किल प्रस्ताव मेरे पक्ष में पास हुआ . मैं तार ब्रेक वाली साइकिल जो B.S.A. S.L.R. थी चाहता था लेकिन कहा गया गिर जाओगे कमेटी ने hero jet पसंद की वह भी लेडीज साइकिल . मन मार कर तीन साल तक वह साइकिल चलाई . बहुत दिनों तक वह ड्राइवर मेरे पीछे साइकिल चलता था . बहुत गुस्सा आता था . लेकिन ...............
कक्षा ९ मैं मोटरसाइकिल की तलब लगी स्कूटर पर राजी हुए लेकिन मोपेड तक नहीं मिली . या तो कार से चलो या साइकिल से बीच की कोई भरती नहीं थी मेरे लिए . साइकिल ऐसे चिपकी जो स्नातक तक नहीं छूटी . बहुत मन था बुलेट मोटरसाइकिल का जो अब हार्ले डेविडसन पर अटका है कभी पूरा नहीं हुआ .पता नहीं क्यों आज तक घर वालो ने मोटर साइकिल नहीं दिलाई .
बचपन की यादे किश्तों में सुनाने की इरादा है . अब अकेले में वही यादे सामने उठ खड़ी होती है . यह एक प्रयास है मेरा .देखिये कहाँ तक सफल हो पाता हूँ .
अच्छा प्रयास है.. कही से ढूढ कर फोटो लगाओ.. उस जमाने की..
जवाब देंहटाएंवाह धीरु भैया बचपन की यादें तो यादे ही हैं।
जवाब देंहटाएंछठवी में मुझे कैमरा मिल गया था, नौकर से पीछा छूट गया था और हीरो जेट सायकिल मिल गयी थी जिसे हाथ छोड़ कर चला था :)
बुलेट मोटर सायकिल तो मैने अभी दो साल पहले तक चलाई, जो अब आई फ़ार्म पे खड़ी है। लेकिन बुलेट से ज्यादा दीवाना मैं जावा का था, क्या कहने थे उस मोटर सायकिल के। चाहे सीधे पहाड़ पर ही चढा दो।
मेरा पागलपन देखें।
अभी के लिए तो यह कह ही सकते है कि आप सफल हुए !!
जवाब देंहटाएंआभार अपनी यादें साँझा करने के लिए !
धीरू भाई आपकी भाषा शैली बिलकुल बरेली की है यही शब्द हम भी प्रयोग करते थे | जारी रखें , शुभकामनायें
जवाब देंहटाएंबचपन की यादें कितनी मीठी होती हैं. आभार साझा करने का.
जवाब देंहटाएंयहां तो साइकिल भी नवीं में पहुंचने पर मिली थी. सेकन्ड हैन्ड, डेढ़ सौ रुपये में... बीस साल तक साथ रखी, फिर एक सज्जन को दे दी..
जवाब देंहटाएंबेतरीन पोस्ट .
जवाब देंहटाएंएक कमेटी बनी घर पर साइकिल के लिए
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारी यादें। अपन की तो ये किस्मत भी नहीं थी भाई। ग्रेट..बढ़िया शृंखला शुरू की धीरूभाई....आप सचमुच अनोखे हैं अपने परिवेश में। हालाँकि कभी मिलूँगा, तभी ये तय हो पाएगा:)
धीरू भाई,
जवाब देंहटाएंहम तो ग्यारह नंबर वाली गाड़ी के मुरीद हैं। मनमाफ़िक साथ हो या अकेले हों, समय की बंदिश न हो तो सर्वोत्तम विकल्प।
बापू ने सफ़ारी ले दी, लेकिन बुलैट का गिला अभी बाकी है, सही है, मां-बाप के दम पर ही तो इतराहट होती है:)
:) बचपन की प्यारी यादें.....
जवाब देंहटाएंबचपन की यादों के लिए किसी शैली की आवश्यकता नहीं होती बस एक अदद दिल चाहिए। बस लिखते रहिए, अच्छी कृति बन जाएगी।
जवाब देंहटाएंयादो की गुल्लक में जो कुछ भी जमा है.. बहर आना ही चाहिए.. मय फोटो..!!
जवाब देंहटाएंसाइकिल का आनन्द ही अलग है।
जवाब देंहटाएंबचपन के दिन भी क्या दिन थे उडते फिरते तितली बन के ....
जवाब देंहटाएंबचपन कि सुनहरी यादें हमेशा अच्छी लगती हैं ...
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