शब्दों में बारूद भरे
सोया समाज राख समान
उसमे कुछ आग लगे
ज्योती को भड़का कर
क्रांती जवाला प्रजवलित करे
कवियो तुम समाज सुधारक
नहीं तुम विदूषक निरे
समय आ गया संघर्षो का
आओ तुम नेतृत्व करो
हास्य -परिहास श्रृंगार को
कुछ दिन को विश्राम दो
लोकतेंत्र के तीनो स्तम्भ
अपने आप ही हिल रहे
अनजाने भय के कारण
समाज भी है डरे हुऐ
सुबिधाओ की बहुतायत में
गुलामी की ओर बहे
रोकना होगा इस धारा को
डट के चट्टानों की तरह
yah kavita hai mera vichaar DHEERU SINGH
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आप बताये क्या मैने ठीक लिखा